
बांग्लादेश की सियासत में भूचाल मच गया है। पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद ऐसा लग रहा था कि राजनीतिक दल एकजुट होकर नए रास्ते तलाशेंगे, लेकिन अब सबकुछ उल्टा होता नज़र आ रहा है। विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमात-ए-इस्लामी के बीच गहराते मतभेदों ने देश की राजनीति में नया मोड़ ला दिया है।
सत्ता से बेदखल हुईं शेख़ हसीना
शेख़ हसीना, जो सालों तक बांग्लादेश की सत्ता पर काबिज़ थीं, इस साल 5 अगस्त को हिंसक विरोध प्रदर्शनों के चलते प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर भारत चली गईं। उनके जाते ही नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनूस ने अंतरिम सरकार का नेतृत्व संभाला। उनके आते ही बांग्लादेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर बदलाव हुए। अवामी लीग के कई नेताओं पर मुकदमे दर्ज हुए, जबकि विपक्षी नेताओं को राहत मिलती दिखी।
बीएनपी और जमात के रिश्तों में खटास
शेख़ हसीना के सत्ता से बाहर होने के बाद बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी में शुरू में तालमेल दिखा, लेकिन अब दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में जुट गए हैं। बीएनपी के महासचिव रुहुल कबीर रिज़वी ने आरोप लगाया कि जमात भारत के साथ अपने रिश्ते सुधारने के लिए शेख़ हसीना को माफ़ करना चाहती है।
रिज़वी ने कहा, “जमात, जिसने 1971 के मुक्ति संग्राम का विरोध किया था, अब अपने राजनीतिक फायदे के लिए भारत से नज़दीकियां बढ़ाना चाहती है।” उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जमात इस्लाम के नाम पर राजनीति कर रही है, जबकि बीएनपी हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों पर खड़ी रही है।
जमात-ए-इस्लामी का पलटवार
बीएनपी के आरोपों पर जमात-ए-इस्लामी ने करारा जवाब दिया। जमात ने कहा, “यह प्रोपेगैंडा राजनीति से प्रेरित है। जमात ने कभी भी देश के अधिकारों से समझौता नहीं किया। बीएनपी अपने गिरेबां में झांके और देखे कि कौन बार-बार भारत जाकर रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहा है।”
जमात ने यह भी आरोप लगाया कि बीएनपी केवल सत्ता की भूखी है और उसकी नीतियों में स्थायित्व नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी राजनीति इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित है, लेकिन वे इस्लाम के नाम पर राजनीति नहीं करते।
चुनाव की मांग पर टकराव
देश में चुनाव कराने को लेकर भी बीएनपी और अंतरिम सरकार आमने-सामने हैं। बीएनपी जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग कर रही है, जबकि मोहम्मद युनूस ने 17 साल के युवाओं को वोटिंग का अधिकार देने का सुझाव दिया है। बीएनपी ने इस कदम को चुनाव में देरी की साजिश बताया है।
बीएनपी नेता मिर्ज़ा फखरूल इस्लाम आलमगीर ने कहा, “नई वोटिंग लिस्ट तैयार करने से चुनाव प्रक्रिया लंबी हो जाएगी। यह जनता के अधिकारों से खिलवाड़ है।”
आमने-सामने हैं सभी दल
जमात-ए-इस्लामी और बीएनपी के बीच बढ़ते मतभेदों से यह साफ हो गया है कि बांग्लादेश की राजनीति में गहरी खाई बन चुकी है। 1971 के मुक्ति संग्राम से लेकर अब तक एक-दूसरे के खिलाफ रही पार्टियों के बीच समझौते और मतभेदों का दौर जारी है। सवाल यह है कि क्या बांग्लादेश की राजनीति में कोई स्थायित्व आएगा, या फिर यह संघर्ष ऐसे ही चलता रहेगा?
अब देखना होगा कि आगामी चुनाव बांग्लादेश की राजनीति को कौन-सा नया मोड़ देंगे और जनता के लिए कौन-सा दल उम्मीद की किरण साबित होगा।